तानपुरे का इतिहास
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1.तानपूरा या “तम्बूरा”भारतीय संगीत का लोकप्रिय वाद्य यंत्र है
2.इसका प्रयोग शास्त्रीय संगीत से लेकर हर तरह के संगीत में किया जाता है
3.तानपूरे में चार तार होते हैं यह सितार के आकार का होता है
4.बड़े बड़े गवैये गाने के समय स्वर का सहारा लेने के लिए इसका उपयोग करते हैं
5.स्वरूप- यह लंबी गर्दन वाली वीणा जैसा होता है, जो भारतीय संगीत में महत्वपूर्ण योगदान देता है
6.आमतौर पर यह चार तारों वाला होता है, जो सा-सा-सा-प या सा-सा-सा-म पर मिले होते हैं
7.तारो के सटीक मिलान के लिए रेशम या ऊन के टुकड़े घुसाकर तथा तारों से जुड़े छोटे मानकों को समायोजित किया जाता है
8.स्वर की पकड़ उपलब्ध कराने के लिए तंबूरा जरूरी है, जिसके भीतर एक गायक या वादक राग को उभारता है।
9.मुख्य अंग
तानपूरा के मुख्यत: छ: अंग होते हैं, जो निम्न है:
तुम्बा – यह लौकी का बना हुआ गोल आकृति का होता है, जो डांड के नीचे के भाग से जुड़ा हुआ होता है।
तबली – गोल लौकी के ऊपर का भाग काटकर अलग कर दिया जाता है और खोखले भाग को लकड़ी के एक टुकड़े से ढँक दिया जाता है, जिसे तबली कहते हैं।
घुड़च (अथवा ब्रिज अथवा घोड़ी) – यह तबली के ऊपर स्थित लकड़ी अथवा हड्डी की बनी हुई छोटी चौकी के आकार की होती है।
धागा – घुड़च और तार के बीच सूत अथवा धागे को ठीक स्थान पर स्थित कर देने से तम्बूरे के झनकार में वृद्धि होती है।
कील (अथवा मोंगरा अथवा लंगोट)- तुम्बे के नीचे के भाग में तार को बांधने के लिए एक कील होती है जिसे कील कहते हैं।
मनका – स्वरों के सूक्ष्म अन्तर को ठीक करने के लिए मोती अथवा हाथी-दाँत के छोटे-छोटे टुकड़े तानपूरे के चारों तार में घुड़च और कील के मध्य अलग-अलग पिरोये जाते हैं जिन्हें मनका कहते हैं। इनसे तार के स्वर थोड़ा ऊपर-नीचे किए जाते हैं।
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