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ध्रुपद गायन

ध्रुपद गायन

 

यह एक अत्यंत पुरानी व् प्रसिद्ध गायन शैली है 

ध्रुपद  गायन बहुत धीमी गति से अर्थात विलम्भित ले में चलता है 

इसे गाने के लिए गायकारो को कठिन अभ्यास करना पड़ता है 

इसका अविष्कार १५वी शताब्दी में ग्वालियर के महाराज मान सिंह तोमर ने किया था

स्वामी हरिदास व् तानसेन अकबर के समय में ध्रुपद  के कुशल गायक थे 

द्रुपद काफी गंभीर गायन होता है इसे गाने में गले व् फेफड़ो पर काफी ज़ोर पड़ता है इसे कारण इसे मरदाना गीत कहा जाता है 

यह मध्य काल में काफी प्रचलित था परन्तु आधुनिक काल में लोगो की पसंद में परिवर्तन के कारण यह विलुप्त होता जा रहा है 

आज ध्रुपद  गायन की जगह ख्याल गायकी ने लेली है 

पहले ध्रुपद  गायकी के चार भाग होते थे स्थायी, अंतरा, संचारी, अभोग, पर आज यह सिमट कर स्थायी व् अन्तरे में रह गया है 

ध्रुपद  चरताल, ब्रह्ममाताल, सुल्ताल, तिवरा, आदि तालों में गाया जाता है जो पखावच पर बजायी जाती है 

ध्रुपद  गीत के शब्द ब्रजभाषा में ज़्यादा पाए जाते है

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